Saturday, June 19, 2010

सत्संग - पियूष - संत श्री विज्ञानदेव जी की दिव्या आध्यात्मिक वाणी


गाथा यह अद्यात्म है...
सत्संग - पियूष - संत श्री विग्यांदेव जी की दिव्या आध्यात्मिक वाणी

आज की एस आध्यात्मिक सभा में हम सभी त्रयतापों के सम्बन्ध में विचार करेंगे और तप के विषय में विचार करेंगे I तीन ताप हैं और तीन तप भी हैं I विहंगम योग के प्रणेता अनंत श्री सदगुरु सदफल्देव जी महाराज ने अपने अध्यात्मिक सदग्रंथ स्वर्वेद में त्रयतापों का वर्णन किया I प्रत्येक मानव तापों से ग्रसित होता है I इसलिए शास्त्रों ने क्या कहा? कहा की तापों से जो निवृत्ति है वाही तो अत्यंत पुरुषार्थ है I ताप को ही दुःख भी कहा गया I त्रयतापों से निवृत्ति ही परम पुरुषार्थ है, अत्यंत पुरुषार्थ है I मानव का जीवन त्रिविध तापों को प्राप्त करता है I एक जो ताप है अधिदैविक है, एक आध्यात्मिक है और एक क्या है आधिभौतिक है I उसी तरह से तीन तप भी हैं I एक तप है शरीर का जिसे हम कहते हैं शारीरिक तप I एक तप वाणी का जिसे हम कहते हैं वाचिक तप, वांग्मय तप और एक जो तप है वह मानसिक तप है I श्रीमद्भागवद्गीता में इन तीन प्रकार के तापों का वर्णन प्राप्त होता है I (to be continued..)

Wednesday, June 16, 2010

ब्रह्मविद्या और मत-सम्प्रदाय (भाग एक)

सत्य काम ! सत्य संकल्प !
ब्रह्मविद्या और मत-सम्प्रदाय
"प्रस्तावना"
ब्रह्मविद्या ब्रह्मा को बताने वाली विद्या है, अलख को लखने वाली विद्या है. यह ब्रह्मविद्या या पराविद्या आज के इस जटिल मानसिकता वाले समय में बड़ी ही विवादास्पद समझी जा रही है. यह तो सरलता की ओर ले जाने वाली विद्या है, किन्तु ज्ञान के अभाव में दुरूह समझी जाने लगी है और स्वभावतः लोगों के मानस-पटल पर कई प्रकार के प्रश्न उभर उठते हैं, यथा ब्रह्मा की प्राप्ति का साधन क्या है? पात्र के गुण क्या हों ? ज्ञान और भक्ति क्या है और इनका धारण कैसे होता है? आदि.
प्रस्तुत लेख के प्रणयनकर्ता आचार्य श्री धर्मचंद्रदेव जी महाराज हैं और इसमें उन्होंने अध्यात्म के गुह्य तत्त्व-रहस्यों का अत्यंत ही सरल भाषा में स्पस्तीकरण किया है.
ब्रह्मविद्या और प्राकृतिक स्तर के मत-सम्प्रदायों में क्या अंतर है, इसका उन्होंने तुलनात्मक विवेचन किया और यही विवेचन साररूप से इस लेख में है.
मेरा विश्वास है की जिज्ञासुओं और अध्यात्म-प्रेमियों को इससे नयी प्रेरणा मिलेगी...
आचार्य स्वतंत्रदेव
परंपरा सद्गुरु


ब्रह्मविद्या और मत-सम्प्रदाय (भाग एक)
ब्रह्मविद्या उस विद्या को कहते हैं, जिस विद्या के द्वारा ब्रह्म-प्राप्ति होती है I इसी को पराविद्या भी कहते हैं I 'मिन्दकोप्निषद' में अंगिरा-शौनक संवाद में पुछा गया है की वह कौन सी विद्या है, जिस विद्या के जान लेने पर सब कुछ जाना जाता है I इसका उत्तर ऋषि ने एस प्रकार दिया है - "द्वे विद्ये वेदितव्ये इति ह स्म यदब्रह्मविदो वदन्ति परा चैवापरा च I " ब्रह्मविद लोग दो प्रकार की विद्या बतलाते हैं -- एक पराविद्या दूसरी अपराविद्या I जिसके द्वारा अक्षर ब्रह्म की प्राप्ति होती है, वह पराविद्या है और चारों वेद, शिक्षा कल्प, व्याकरण, छंद, ज्योतिष, निरुक्त, ये अपराविद्या हैं I ब्रह्मचर्य का पालन करके वेद-वेदाग्न, षड्दर्शन के अध्ययन के बाद विद्यार्थी स्नातक होता है I वेद्शाश्त्रों से लौकिक ज्ञान एवं ब्रह्मविद्या के तत्वज्ञान प्राप्त होते हैं, किन्तु एकमात्र पराविद्या के द्वारा ब्रह्मप्राप्ति, परमानन्द की प्राप्ति होती है I